इंतज़ार है ठूँठ हो जाने का

Filed under: by: vinay sehra




एक घर था सपनों का 
बागीचा गुलशन था 
पेड़ था घना विशाल
छाया घर को ढकती|

दीवारें सीधी सपाट ,
दरवाजें दीवारों को काटते |
खिड़कियाँ रोशन करती घर,
कमरे में अलसाता सूरज 
भीनी किरनें उखेरता था |
रात भरपूर सन्नाटा होता, 
बागीचे के पक्षियों की आवाजें 
घर को महकाती थी |

एक कमरा किताबों से भरा था
दूसरें कमरे में सिर्फ खिलोने,
रसोईघर के बर्तन चुप थे ।
बैठक सुनी पड़ी रहती ,
सोफे पर धुल जमी थी|
शयन कक्ष की कुर्सी हिचकोरे लेती, 
कई बरसों से फोन बंद था।

३ पीढ़िया देखी थी घर ने
धीरे-धीरे सब ख़त्म हो गया ।

यूँ तो दीवारें आज भी खड़ी है,
आँगन में रोज़ सूरज झांकता है, 
खिलोने कभी बोल पड़ते है,
पर, बच्चो की हंसी गायब है 
माँ, दादी की लोरी नहीं है।

एक वृद्ध हर रोज़ 
बागीचे को पानी देता है
कुर्सी पर हिचकोरे लेते हुए 
१० बरस पुरानी बच्चो की हंसी 
दादी की लोरी, बाप का गुस्सा 
माँ का प्यार महसूस करता है |

घने विशाल पेड़ के नीचे  
इंतज़ार है उसे भी 
एक दिन ठूँठ हो जाने का |

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