गंगा यमुना की पावन धरती का क़र्ज़ महान लिखो,
हर गरीब की मेहनत की रोटी का तुम प्रमाण लिखो|
पंछी अपने पंख फैलाकर उड़ गया आकाश की ओर,
पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते पदचिन्हों की शान लिखो|
आकाश के चमकते तारे देखो टूट गिरे इस धरती पर,
धरा पर रहकर तुम अपना अम्बर से ऊँचा मान लिखो|
बंद आँखों-से देखी सपनों की दुनिया तो जन्नत है,
आँखें खोलकर हकीकत में चंद सपनों की उड़ान लिखो|
आज हर कोई झूठी शान-ओ-शौकत से ही जीता है,
साधारण से व्यक्तित्व से अपनी उच्च पहचान लिखो|
दूसरों की नज़रों में ऊपर उठना ही क्या मकसद है,
सबसे ऊपर दिल में अपने थोड़ा आत्म-सम्मान लिखो|
जल
जल जल के ही तो सीखा है जल ने
जलती आग बुझाना
क्या ख़ाक जलेगा तू जल-सा
राख तूने है बन जाना |
पूछा था एक दिन मैंने जल से
कैसे थी आग बुझाई
वीर और पौरुषता की
उसने थी कथा सुनाई|
इंसानियत का उसने वो
नंगा नाच दिखाया था
इन्सान होने का दंभ उसी दिन
चूर चूर हो आया था|
जल ने बताया था जो मुझको
लो आज तुम्हें बतलाता हूँ
जल की जो सत्य कहानी है
उसी की ज़बानी सुनाता हूँ:-
पैसे के भूखे भेड़िये जब तूने
अपनी बहु को आग लगाई थी
जलती हुई लक्ष्मी देख तुझे
ज़रा भी लज्जा ना आई थी
तूने उसके संस्कारों को तब
कागज़ के टुकडो से तौला था
उस बेसहारा बेकसूर को
अग्नि परीक्षा के लिए छोड़ा था
तड़पती उस मासूम को देख
आँख मेरी भर आई थी
और उसकी जान बचाने को
मैंने खुद को आग लगायी थी|
भोग-विलासिता का जीवन जीता है
खुद को राजा बतलाता है
घर को जिस बिजली से रोशन करता
उसी से जब तेरा घर जल जाता है
रोता बिलखता है तब तू
दिवालिया तक हो जाता है
माँ बच्चो को गले लगा
तू अपना दुखड़ा गता है
हर किसी के आगे पीछे
दया के लिए चिल्लाता है
कल तब जिसको पाँव की मिटटी समझा
उसी को माथे का तिलक बनाता है|
तेरी ऐसी दशा देख के
दया सिर्फ मुझको ही आई थी
और तेरी जान बचाने को मैंने
खुद को आग लगाई थी|
अराजकता और साम्प्रदायिकता की
जब तूने चिंगारी भड़काई थी
धर्म के नाम पर धरती माँ के
आँचल में आग लगाई थी
खैर कहाँ थी गरीब के खेतों की
ऊँची इमारतों तक को दफनाया था
अपने धर्म की रक्षा के नाम पे
दूसरों को तूने काट खाया था
मेरी धरती माँ के सीने पे
लाखों तलवारें चलवाई थी
मेरे होते हुए तूने खून की नदियाँ बहाई थी|
इस नरसंहार में, इस धधकती आग में
जलती तेरी माँ-बहन पर जब
किसी को लज्जा ना आई थी
तेरे कुनबे की अस्मत तब
मैंने ही बचाई थी
मैंने खुद को आग लगाई थी|
पूछता है फिर भी तू मुझसे
ये बाढ़ क्यों त्राहि मचाती है
अरे! रोता है मेरा भी हृदय
कभी-कभी आँख मेरी भी भर आती है|
दाग
ख़त्म हो गए आँसू ना जाने कितने हैं राज़
क्यों करता रहता हूँ फिर भी मैं इतने पाप|
पलकें नाम हैं आज जैसे हो दूब पे ओंस पड़ी,
क्यों होती हैं हर सुबह के बाद अंधेरी रात|
दिखते है कई साए शीशे में पत्थर जैसे,
क्यों नहीं दिखती बस मेरी सूरत जैसी इनमें बात|
कितने रंग बदलती है लिबासों की तरह ये ज़िन्दगी,
क्यों इन रंगों में घुले पागल दिल के जज़्बात|
कई मौसम बदले, कई रातों में बदली शामें,
मोम नहीं है दिल मेरा फिर क्यों है इतने गहरें दाग|
फ़ासला है दो कदम का
दूरियाँ मीलों की है,
पत्थरों की दीवारों में
खिड़कियाँ झीलों सी है|
देखते उन खिड़कियों में
दिखता अपना ही गगन,
तेरे फ़िज़ा की खुशबूओं से
खिलता है मेरा चमन|
बस एक ख्वाहिश है कि
मिलके बैठेंगे और गाएंगे,
मोहब्बत मिली तो गीत
सिर्फ ख़ुशी के गुनगुनाएंगे|
'ना' कहना ना होंठों से तुम
दिल को बस बात बता देना,
आवाजों के गलियारों में
खामोशी का पता देना|
कौन कहता है
हाथों की लकीरों में
छिपी है सरहदें,
ये तो दिलो की बात है
खाहिश और बस जज़्बात है,
मिल जाओ अगर तुम जहाँ में
फिर क्या लकीरें
और क्या फिर कोई बात है|
तू हमसफ़र,तेरा साया
मैं खुद अपने को खोजूँ
या तेरा दीदार करुँ|
मेरे शब्दों की आँधी में
खो ना जाये नाम तेरा
तुझे दिल में छिपा लूँ
या तूफानों से खिलवाड़ करूँ|
बेबस है ये आंसू
टकराया आज होंठों से
लबों में अश्क दबाऊँ
या आँखों से फरियाद करूँ|
ख्वाबों में है कुछ बूंदें
बहती हुई निर्मल जल-सी,
तेरे आंसू चुरा लूँ
या मैं कत्ल-ए-आम करुँ|
ना कभी कुछ चाहा
ना तुझसे दुआ की है
मैं खुद को मिटा लूँ
या तुझे हर पल याद करूँ|
बंधा हुआ हूँ आज
उस पलंग में
अतीत का बिस्तर बिछा के
ओढ़कर यादों की चादर
खुली आँखों में भरकर
अनचाही नींद के सपने
बंद करके रोशनी के सब दरवाज़े
वर्तमान से तोड़कर रिश्ता
भुलाकर शरीर की हर हलचल
उड़ चला मन और
लिपट गया अतीत के बिस्तर से
मानो लिप्त हो
'आज और कल' |
चलते-चलते
चलते-चलते इन राहों में अपना अक्स मैंने देखा है,
हर कदम फिर एक नया शख्स मैंने देखा है |
राहों की हर एक करवट को पांवों ने महसूस किया,
हर करवट इक नया संसार बनते मैंने देखा है|
चलते-चलते इन राहों में देखी है कई कौमें बनती,
माटी की सौंधी खुशबू को हर कदम बदलते देखा है|
बारिश की चंचल बूंदों का बावड़ियों में हलचल करना,
प्यास बुझाते मवेशियों को दलदल में उतरते देखा है|
सूखी सुनहरी दूब की मुट्ठी में पावन किरणों का चमकना,
पगडंडी के सहारे मिट्टी को दमकते मैंने देखा है|
लहलहाती फसलों में चिडियों का घरोंदा खिलना,
खिलते किसान के चेहरे को कागज़ पे उतरते देखा है|
चलते-चलते इन राहों में अपना अक्स मैंने देखा है,
हर कदम फिर एक नया शख्स मैंने देखा है |लोग कहते है जो छूता था आसमाँ की बुलंदियों को,
उस पंछी को शायद अब उड़ना नहीं आता|
मुस्कुराते थे जो बगिया में सुनहरे फूल बनकर,
टूटे मेरे उन ख्वाबों को अब खिलना नहीं आता|
काश समझा दे कोई अंखियों के मोती को,
मेरे ग़मों को अश्कों में घुलना नहीं आता|
डरती है तड़पती रूह इक सांस लेने से,
सूखी हुई नदिया को बहना नहीं आता|
मत दबाना जज़्बात सारे दिल में 'विनय' बनकर,
हर होंठ पे मुस्कराहट को सजना नहीं आता|
क्यों समझ में नहीं आती है बात इतनी सी,
हर किसी को दिल ही दिल में मरना नहीं आता|
बिछा दे काश कोई राहों पे काँटों के बिस्तर,
नंगे मेरे पाँवों को अंगारों पे चलना नहीं आता|
हर दूसरा शख्स यहाँ खुद को दोस्त कहता है,
मेरे ही कानों को शायद अब सुनना नहीं आता|
एक ख्वाब सो जाता है
हर सुबह
रोशनी की किरणें
एक मुसाफिर की तरह
आँखों के दरवाज़े
दस्तक देती है
और
इन पलकों को खटखटाती हुई
यही चाहती है कि
इस घर में सोए हुए
अन्धेरें सपनों को
रोशनी की इक नई किरण
दिखाई जाए |
'वो किरण '
जो इन बंद आँखों में कैद
ख्वाबों को
इक नयी सुबह दिखाए
वो किरण
जो सपनों को
हकीकत तक ले जाए
पर
ये आँखे
डूबी है उन्ही सपनों में
'वो सपने'
जो सपने बनकर
आँखों में सोते है
वो सपने
जो हकीकत की छाँव में
पलने से डरते है |
'वो किरण'
देर तक
दरवाज़ा खटखटाती है
और पलकें
तब
तक नहीं खुलती
'वो सपने'
जब तक
इन आँखों में खो नहीं जाते|
हर सुबह
मेरे जगने के साथ
एक ख्वाब सो जाता है|
जलता जुनून
हर लम्हा जीया ऐसे जैसे खुद से बगावत हो,
सोचा के आगे पड़ा पूरा जहान बाकी है|
किया वो हर इक काम जिससे मन को मोहब्बत हो,
भूल गया वो चीज़ जिसपे टिका मेरा संसार बाकी है|
ज़ख्मी हो गया उसी खेल में जिसमें महारत थी,
गिरने को अभी बचे कई मैदान बाकी है|
थम गया फिर भी हर आँसू शिकायत का,
मेरे होंठों में बची अभी कुछ जान बाकी है|
घोंट दिया है गला हर 'छोटी इनायत' का,
दिल में मेरे मचा 'बड़ा तूफ़ान' बाकी है|
पहुँच गया मेरा देश बुलंदी के आसमाँ पर,
हर इंसान के दिल में मगर कुछ अरमान बाकी है|
जलती रहे हर दिल में अरमानों की यही ज्वाला,
इस आसमाँ के पार बचा संसार बाकी है|
किए गया मैं गलतियाँ हर गलतियों के बाद,
हर अरमान पूरा होगा,'जलता जुनून ' बाकी है|
स्वार्थ
मैं हूँ पतझड़ के पत्तों-सा
बिखरा हूँ यहाँ वहाँ,
कौन संभालेगा मुझको
क्यों कोई उठाएगा ?
जोड़ेगा मुझको जो कोई
वो आग लगा देगा,
बढ़ाकर फिर वो ताप अपना
मुझे राख बना देगा |
संभाला था उस दरख्त ने मुझे
वक्त आया तो छोड़ दिया,
जब दे ना सका मैं कुछ उसको
सब रिश्ता-नाता तोड़ दिया |
हरा-भरा था वह साथ मेरे
ठूँठ है अब मेरे बिना,
पर ना पुकारेगा वह मुझको
है उसमें अहम् भरा |
खिलाई धरती ने भी फूल-फसलें
क्या पुण्य कमाया है?
जुड़कर इन दरख्तों के ज़रिये
अपना भाग्य जगाया है |
बरसाया बादलों ने पानी
हम पर एहसान जताया है ?
कौन जाने कालापन हटा
खुद को निर्मल बनाया है |
चंदा ने भी रात में हमें
चांदनी का दान दिया,
पर चुपके-चुपके खुद अपने को
सूरज से छिपा लिया |
देखकर इन सब देवताओं को
क्या मैं ज़िंदा रह पाऊँगा,
जलकर मैं अब, बढ़ाकर ताप
राख बनकर उड़ जाऊँगा |