आँसू

Filed under: by: vinay sehra

कभी आँसू की दास्ताँ खुद आँसू सुनाता है
कभी बहते हुए खुद ही में डूब जाता है,
कभी गाल के किसी कोने में जाकर ठहरता है
कभी आँख की सूनी परतों पर सूख जाता है|

कभी अपनी हस्ती पर खुद ही रो पड़ता है
कभी गैर के गम में ये पलकें भिगाता है,
पराई मिट्टी लपकने को आँखों से टपकता है
कभी अपने ही आँगन की खुशबू भूल जाता है|

सूनी करके ये आँखें मामूली बहाने से
जग की जगमग में हँसता है खिलखिलाता है,
बहता है मगर फिर भी ज़माने के सितम सहके
रोता है तो बस इन्सां,ये आँसू मुस्कुराता है |