स्वार्थ

Filed under: by: vinay sehra


स्वार्थ




मैं हूँ पतझड़ के पत्तों-सा

बिखरा हूँ यहाँ वहाँ,

कौन संभालेगा मुझको

क्यों कोई उठाएगा ?


जोड़ेगा मुझको जो कोई

वो आग लगा देगा,

बढ़ाकर फिर वो ताप अपना

मुझे राख बना देगा |


संभाला था उस दरख्त ने मुझे

वक्त आया तो छोड़ दिया,

जब दे ना सका मैं कुछ उसको

सब रिश्ता-नाता तोड़ दिया |


हरा-भरा था वह साथ मेरे

ठूँठ है अब मेरे बिना,

पर ना पुकारेगा वह मुझको

है उसमें अहम् भरा |


खिलाई धरती ने भी फूल-फसलें

क्या पुण्य कमाया है?

जुड़कर इन दरख्तों के ज़रिये

अपना भाग्य जगाया है |


बरसाया बादलों ने पानी

हम पर एहसान जताया है ?

कौन जाने कालापन हटा

खुद को निर्मल बनाया है |


चंदा ने भी रात में हमें

चांदनी का दान दिया,

पर चुपके-चुपके खुद अपने को

सूरज से छिपा लिया |


देखकर इन सब देवताओं को

क्या मैं ज़िंदा रह पाऊँगा,

जलकर मैं अब, बढ़ाकर ताप

राख बनकर उड़ जाऊँगा |



8 comments:

On May 4, 2009 at 2:51 AM , नरेन गुप्ता said...

awesome!!

the comparisons made are really fantastic.

its truly said "JAHAN NAA PAHUNCHE RAVI, WAHAN PAHUNCHE KAVI".

no one ever thinks the way it is written..

simply fabulous!!

 
On May 6, 2009 at 10:52 AM , vinay sehra said...

thanks a lot mr. naren....i was not expecting such praise...

 
On May 6, 2009 at 11:19 AM , Unknown said...

cool man its simply great


plzzzzzz carry on this fantastic

 
On May 6, 2009 at 10:01 PM , prashant said...

haha
wah

 
On May 7, 2009 at 12:29 PM , Unknown said...

the poem is absolutely marvellous....

 
On May 12, 2009 at 2:27 AM , Unknown said...

wah sehra...maan gye tujhe

 
On May 12, 2009 at 8:40 AM , Unknown said...

bhai bhaut bhadiya!!!!

 
On August 21, 2009 at 11:50 AM , Unknown said...

yar kaha se sochte ho ye sab haaan?????? bahut badhiya yar