चलते-चलते

Filed under: by: vinay sehra


चलते-चलते

चलते-चलते इन राहों में अपना अक्स मैंने देखा है,

हर कदम फिर एक नया शख्स मैंने देखा है |


राहों की हर एक करवट को पांवों ने महसूस किया,

हर करवट इक नया संसार बनते मैंने देखा है|


चलते-चलते इन राहों में देखी है कई कौमें बनती,

माटी की सौंधी खुशबू को हर कदम बदलते देखा है|


बारिश की चंचल बूंदों का बावड़ियों में हलचल करना,

प्यास बुझाते मवेशियों को दलदल में उतरते देखा है|


सूखी सुनहरी दूब की मुट्ठी में पावन किरणों का चमकना,

पगडंडी के सहारे मिट्टी को दमकते मैंने देखा है|


लहलहाती फसलों में चिडियों का घरोंदा खिलना,

खिलते किसान के चेहरे को कागज़ पे उतरते देखा है|


चलते-चलते इन राहों में अपना अक्स मैंने देखा है,

हर कदम फिर एक नया शख्स मैंने देखा है |

3 comments:

On May 18, 2009 at 10:48 AM , अनुपम अग्रवाल said...

चलते-चलते इन राहों में अपना अक्स मैंने देखा है,
हर कदम फिर एक नया शख्स मैंने देखा है |

यह पंक्तियाँ विशेष रूप से अच्छी लगीं ..

 
On May 22, 2009 at 3:57 AM , Vinay said...

जिस पक्ष को मैं देखता हूँ वह है ज़िन्दगी, उसके कितने रंग समेटे गये हैं किसी रचना। वह आप ख़ूब समेटते हो... बहुत ही बढ़िया रचना है!

 
On August 21, 2009 at 11:21 AM , Unknown said...

incredible