स्वार्थ
मैं हूँ पतझड़ के पत्तों-सा
बिखरा हूँ यहाँ वहाँ,
कौन संभालेगा मुझको
क्यों कोई उठाएगा ?
जोड़ेगा मुझको जो कोई
वो आग लगा देगा,
बढ़ाकर फिर वो ताप अपना
मुझे राख बना देगा |
संभाला था उस दरख्त ने मुझे
वक्त आया तो छोड़ दिया,
जब दे ना सका मैं कुछ उसको
सब रिश्ता-नाता तोड़ दिया |
हरा-भरा था वह साथ मेरे
ठूँठ है अब मेरे बिना,
पर ना पुकारेगा वह मुझको
है उसमें अहम् भरा |
खिलाई धरती ने भी फूल-फसलें
क्या पुण्य कमाया है?
जुड़कर इन दरख्तों के ज़रिये
अपना भाग्य जगाया है |
बरसाया बादलों ने पानी
हम पर एहसान जताया है ?
कौन जाने कालापन हटा
खुद को निर्मल बनाया है |
चंदा ने भी रात में हमें
चांदनी का दान दिया,
पर चुपके-चुपके खुद अपने को
सूरज से छिपा लिया |
देखकर इन सब देवताओं को
क्या मैं ज़िंदा रह पाऊँगा,
जलकर मैं अब, बढ़ाकर ताप
राख बनकर उड़ जाऊँगा |
8 comments:
awesome!!
the comparisons made are really fantastic.
its truly said "JAHAN NAA PAHUNCHE RAVI, WAHAN PAHUNCHE KAVI".
no one ever thinks the way it is written..
simply fabulous!!
thanks a lot mr. naren....i was not expecting such praise...
cool man its simply great
plzzzzzz carry on this fantastic
haha
wah
the poem is absolutely marvellous....
wah sehra...maan gye tujhe
bhai bhaut bhadiya!!!!
yar kaha se sochte ho ye sab haaan?????? bahut badhiya yar