अपंग वर्तमान

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अपंग वर्तमान

बंधा हुआ हूँ आज
उस पलंग में
अतीत का बिस्तर बिछा के
ओढ़कर यादों की चादर
खुली आँखों में भरकर
अनचाही नींद के सपने
बंद करके रोशनी के सब दरवाज़े
वर्तमान से
तोड़कर रिश्ता
भुलाकर शरीर की हर हलचल
उड़ चला मन और
लिपट गया अतीत के बिस्तर से
मानो लिप्त हो
'आज और कल' |

चलते-चलते

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चलते-चलते

चलते-चलते इन राहों में अपना अक्स मैंने देखा है,

हर कदम फिर एक नया शख्स मैंने देखा है |


राहों की हर एक करवट को पांवों ने महसूस किया,

हर करवट इक नया संसार बनते मैंने देखा है|


चलते-चलते इन राहों में देखी है कई कौमें बनती,

माटी की सौंधी खुशबू को हर कदम बदलते देखा है|


बारिश की चंचल बूंदों का बावड़ियों में हलचल करना,

प्यास बुझाते मवेशियों को दलदल में उतरते देखा है|


सूखी सुनहरी दूब की मुट्ठी में पावन किरणों का चमकना,

पगडंडी के सहारे मिट्टी को दमकते मैंने देखा है|


लहलहाती फसलों में चिडियों का घरोंदा खिलना,

खिलते किसान के चेहरे को कागज़ पे उतरते देखा है|


चलते-चलते इन राहों में अपना अक्स मैंने देखा है,

हर कदम फिर एक नया शख्स मैंने देखा है |

कटे पंख

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कटे पंख

लोग कहते है जो छूता था आसमाँ की बुलंदियों को,
उस पंछी को शायद अब उड़ना नहीं आता|

मुस्कुराते थे जो बगिया में सुनहरे फूल बनकर,
टूटे मेरे उन ख्वाबों को अब खिलना नहीं आता|

काश समझा दे कोई अंखियों के मोती को,
मेरे ग़मों को अश्कों में घुलना नहीं आता|

डरती है तड़पती रूह इक सांस लेने से,
सूखी हुई नदिया को बहना नहीं आता|

मत दबाना जज़्बात सारे दिल में 'विनय' बनकर,
हर होंठ पे मुस्कराहट को सजना नहीं आता|

क्यों समझ में नहीं आती है बात इतनी सी,
हर किसी को दिल ही दिल में मरना नहीं आता|

बिछा दे काश कोई राहों पे काँटों के बिस्तर,
नंगे मेरे पाँवों को अंगारों पे चलना नहीं आता|

हर दूसरा शख्स यहाँ खुद को दोस्त कहता है,
मेरे ही कानों को शायद अब सुनना नहीं आता|


एक ख्वाब सो जाता है

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एक ख्वाब सो जाता है

हर सुबह

रोशनी की किरणें

एक मुसाफिर की तरह

आँखों के दरवाज़े

दस्तक देती है

और

इन पलकों को खटखटाती हुई

यही चाहती है कि

इस घर में सोए हुए

अन्धेरें सपनों को

रोशनी की इक नई किरण

दिखाई जाए |

'वो किरण '

जो इन बंद आँखों में कैद

ख्वाबों को

इक नयी सुबह दिखाए

वो किरण

जो सपनों को

हकीकत तक ले जाए

पर

ये आँखे

डूबी है उन्ही सपनों में

'वो सपने'

जो सपने बनकर

आँखों में सोते है

वो सपने

जो हकीकत की छाँव में

पलने से डरते है |

'वो किरण'

देर तक

दरवाज़ा खटखटाती है

और पलकें

तब

तक नहीं खुलती

'वो सपने'

जब तक

इन आँखों में खो नहीं जाते|

हर सुबह

मेरे जगने के साथ

एक ख्वाब सो जाता है|


जलता जुनून

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जलता जुनून

हर लम्हा जीया ऐसे जैसे खुद से बगावत हो,

सोचा के आगे पड़ा पूरा जहान बाकी है|


किया वो हर इक काम जिससे मन को मोहब्बत हो,

भूल गया वो चीज़ जिसपे टिका मेरा संसार बाकी है|


ज़ख्मी हो गया उसी खेल में जिसमें महारत थी,

गिरने को अभी बचे कई मैदान बाकी है|


थम गया फिर भी हर आँसू शिकायत का,

मेरे होंठों में बची अभी कुछ जान बाकी है|


घोंट दिया है गला हर 'छोटी इनायत' का,

दिल में मेरे मचा 'बड़ा तूफ़ान' बाकी है|


पहुँच गया मेरा देश बुलंदी के आसमाँ पर,

हर इंसान के दिल में मगर कुछ अरमान बाकी है|


जलती रहे हर दिल में अरमानों की यही ज्वाला,

इस आसमाँ के पार बचा संसार बाकी है|


किए गया मैं गलतियाँ हर गलतियों के बाद,

हर अरमान पूरा होगा,'जलता जुनून ' बाकी है|

स्वार्थ

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स्वार्थ




मैं हूँ पतझड़ के पत्तों-सा

बिखरा हूँ यहाँ वहाँ,

कौन संभालेगा मुझको

क्यों कोई उठाएगा ?


जोड़ेगा मुझको जो कोई

वो आग लगा देगा,

बढ़ाकर फिर वो ताप अपना

मुझे राख बना देगा |


संभाला था उस दरख्त ने मुझे

वक्त आया तो छोड़ दिया,

जब दे ना सका मैं कुछ उसको

सब रिश्ता-नाता तोड़ दिया |


हरा-भरा था वह साथ मेरे

ठूँठ है अब मेरे बिना,

पर ना पुकारेगा वह मुझको

है उसमें अहम् भरा |


खिलाई धरती ने भी फूल-फसलें

क्या पुण्य कमाया है?

जुड़कर इन दरख्तों के ज़रिये

अपना भाग्य जगाया है |


बरसाया बादलों ने पानी

हम पर एहसान जताया है ?

कौन जाने कालापन हटा

खुद को निर्मल बनाया है |


चंदा ने भी रात में हमें

चांदनी का दान दिया,

पर चुपके-चुपके खुद अपने को

सूरज से छिपा लिया |


देखकर इन सब देवताओं को

क्या मैं ज़िंदा रह पाऊँगा,

जलकर मैं अब, बढ़ाकर ताप

राख बनकर उड़ जाऊँगा |