आत्म-सम्मान

Filed under: by: vinay sehra

गंगा यमुना की पावन धरती का क़र्ज़ महान लिखो,
हर गरीब की मेहनत की रोटी का तुम प्रमाण लिखो|

पंछी अपने पंख फैलाकर उड़ गया आकाश की ओर,
पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते पदचिन्हों की शान लिखो|

आकाश के चमकते तारे देखो टूट गिरे इस धरती पर,
धरा पर रहकर तुम अपना अम्बर से ऊँचा मान लिखो|

बंद आँखों-से देखी सपनों की दुनिया तो जन्नत है,
आँखें खोलकर हकीकत में चंद सपनों की उड़ान लिखो|

आज हर कोई झूठी शान-ओ-शौकत से ही जीता है,
साधारण से व्यक्तित्व से अपनी उच्च पहचान लिखो|

दूसरों की नज़रों में ऊपर उठना ही क्या मकसद है,
सबसे ऊपर दिल में अपने थोड़ा आत्म-सम्मान लिखो|

2 comments:

On November 5, 2009 at 4:42 AM , Unknown said...

aweomeest!! my favourate

 
On November 24, 2009 at 5:42 AM , Unknown said...

amazing poem....
you r a terrific writer