Filed under: by: vinay sehra

दरख्तों की घनी छाया
तू हमसफ़र,तेरा साया
मैं खुद अपने को खोजूँ
या तेरा दीदार करुँ|

मेरे शब्दों की आँधी में
खो ना जाये नाम तेरा
तुझे दिल में छिपा लूँ
या तूफानों से खिलवाड़ करूँ|

बेबस है ये आंसू
टकराया आज होंठों से
लबों में अश्क दबाऊँ
या आँखों से फरियाद करूँ|

ख्वाबों में है कुछ बूंदें
बहती हुई निर्मल जल-सी,
तेरे आंसू चुरा लूँ
या मैं कत्ल--आम करुँ|

ना कभी कुछ चाहा
ना तुझसे दुआ की है
मैं खुद को मिटा लूँ
या तुझे हर पल याद करूँ|

2 comments:

On June 28, 2009 at 3:18 AM , MAYUR said...

एक दम ताज़ा कविता .


आपका चिटठा खूबसूरत है , आपके विचार सराहनीय हैं ,
यूँ ही लिखते रहिये , हमें भी ऊर्जा मिलेगी
धन्यवाद,
मयूर
अपनी अपनी डगर
sarparast.blogspot.com

 
On August 21, 2009 at 11:11 AM , Unknown said...

bahut hi behtarin likha hai,hum to aisa soch bhi nahi sakte,keep it up!!!!!!!!