दाग

Filed under: by: vinay sehra

दाग

ख़त्म हो गए आँसू ना जाने कितने हैं राज़
क्यों करता रहता हूँ फिर भी मैं इतने पाप|

पलकें नाम हैं आज जैसे हो दूब पे ओंस पड़ी,
क्यों होती हैं हर सुबह के बाद अंधेरी रात|

दिखते है कई साए शीशे में पत्थर जैसे,
क्यों नहीं दिखती बस मेरी सूरत जैसी इनमें बात|

कितने रंग बदलती है लिबासों की तरह ये ज़िन्दगी,
क्यों इन रंगों में घुले पागल दिल के जज़्बात|

कई मौसम बदले, कई रातों में बदली शामें,
मोम नहीं है दिल मेरा फिर क्यों है इतने गहरें दाग|




4 comments:

On August 23, 2009 at 2:47 AM , Atam said...

gajab sir...........

 
On August 23, 2009 at 4:02 AM , Yogesh Verma Swapn said...

umda bhavon se purn umda rachna.

 
On August 25, 2009 at 7:00 AM , Vinay said...

बहुत ख़ूब
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'चर्चा' पर पढ़िए: पाणिनि – व्याकरण के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार

 
On August 26, 2009 at 9:11 PM , Unknown said...

baap re!!!! kya baat hai!!!