कभी तो अपने दिल कि सुनते, कभी तो विनय समझते तुम
सपनों में जो कर लेते हो, कभी तो होश में करते तुम |
बड़ी शान से आगे बढ़ते, नई मंज़िले चढ़ते तुम,
पहले लेकिन कदम उठाकर रस्ते पर तो रखते तुम|
‘खुद कि खातिर जीता हूँ’ कहते हो सारी दुनिया से
खुद से करके आँख मिचोली क्या कुछ नहीं हो करते तुम|
नींदों में तुम खोये रहते, सपनें मानो सच्चे थे,
सही दिशा में मेहनत करके सपनों में ही जगते तुम|
आगे बढ़ने की जो ठानी अपने पीछे बिखर गए
डोरी कच्ची थी रिश्ते की बाँध के कसके रखते तुम,
बड़ी नौकरी, बड़ा है ओहदा, जेब में पैसे ठूंस लिए
घर के आइनों में देखो खुद ही पर हो हँसते तुम,
सपनें देखे पूरे हो गए, मंज़िल भी तो पा ली है
सोचो विनय हो किसकी खातिर विनय को विनय समझते तुम|
कभी बहते हुए खुद ही में डूब जाता है,
कभी गाल के किसी कोने में जाकर ठहरता है
कभी आँख की सूनी परतों पर सूख जाता है|
कभी अपनी हस्ती पर खुद ही रो पड़ता है
कभी गैर के गम में ये पलकें भिगाता है,
पराई मिट्टी लपकने को आँखों से टपकता है
कभी अपने ही आँगन की खुशबू भूल जाता है|
सूनी करके ये आँखें मामूली बहाने से
जग की जगमग में हँसता है खिलखिलाता है,
बहता है मगर फिर भी ज़माने के सितम सहके
रोता है तो बस इन्सां,ये आँसू मुस्कुराता है |
अनजाने लोगों के बीच हम अक्सर तुझको ढूँढ़ते है,
तेरे साथ रहकर कभी हम तुझमें खुद को ढूँढ़ते है |
पहले तो इक अंश था तेरा,अब पूरा पहचान गए,
कली प्यार की बोई थी अब पूरा पौधा ढूँढ़ते है|
आँखों से अब किसको देखे हमको ये मालूम नहीं,
जिसमें देखे तुझको देखे सबमें तुझको ढूँढ़ते है|
तेरे साथी,सखा,बंधूगण सब ही हमको जान गए,
ऐ भोली अनजान, हम पहचान तो तुझमें ढूँढ़ते है|
मुझसे तेरी बातें करते दर-दरवाज़ें-दीवारें,
मेरे घर के आईने तक तेरी सूरत ढूँढ़ते है|
बाज़ारों की रौनक कहती मुझसे के खामोश है तू,
कैसे कहूँ मैं सदाएँ तेरी कान यूँ मेरे ढूँढ़ते है|
तेरे साथ चले हम जब भी दिल ये खुद पर नाज़ करे,
तन्हा बैठे लम्हें अब तक तेरे किस्से ढूँढ़ते है|