कभी आँसू की दास्ताँ खुद आँसू सुनाता है
कभी बहते हुए खुद ही में डूब जाता है,
कभी गाल के किसी कोने में जाकर ठहरता है
कभी आँख की सूनी परतों पर सूख जाता है|
कभी अपनी हस्ती पर खुद ही रो पड़ता है
कभी गैर के गम में ये पलकें भिगाता है,
पराई मिट्टी लपकने को आँखों से टपकता है
कभी अपने ही आँगन की खुशबू भूल जाता है|
सूनी करके ये आँखें मामूली बहाने से
जग की जगमग में हँसता है खिलखिलाता है,
बहता है मगर फिर भी ज़माने के सितम सहके
रोता है तो बस इन्सां,ये आँसू मुस्कुराता है |
कभी बहते हुए खुद ही में डूब जाता है,
कभी गाल के किसी कोने में जाकर ठहरता है
कभी आँख की सूनी परतों पर सूख जाता है|
कभी अपनी हस्ती पर खुद ही रो पड़ता है
कभी गैर के गम में ये पलकें भिगाता है,
पराई मिट्टी लपकने को आँखों से टपकता है
कभी अपने ही आँगन की खुशबू भूल जाता है|
सूनी करके ये आँखें मामूली बहाने से
जग की जगमग में हँसता है खिलखिलाता है,
बहता है मगर फिर भी ज़माने के सितम सहके
रोता है तो बस इन्सां,ये आँसू मुस्कुराता है |
3 comments:
kavita padhkar aankhein nam hoi gayi
kaviraj kamal kar diya aapne......
yaar,teri kavita aaj pehli baar padhi aur sahi me maza aa gaya,kasam se dil se keh raha hu!!
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